जैन संस्कृत साहित्य के आदि लेखक आचार्य उमास्वाति ने तत्वार्थ में परस्परोपग्रहो जीवनम् का उल्लेख कर समझाया है कि परस्पर उपकार करना जीव का धर्म है।
शत् प्रतिशत अपने पाँव पर ही खड़ा होकर एक मानव जी नहीं सकता। उसे एक दूसरे कि सहायता लेनी पड़ती है और देनी पड़ती है। सुखी वह है जो स्वयम् के साथ दूसरों को भी सुखपूर्वक जीने का अधिकार दे। अधिकार और कर्त्तव्य का यह
सम्बन्ध शिक्षा व संस्कारों के केंद्र से आती है। जीना हमारा अधिकार है और दूसरों को जीने देना हमारा परम कर्तव्य |
मेरे हृदयसम्राट महानशिक्षा शास्त्री जैनाचार्य गुरुवर वल्लभ ने शिक्षा के इस महत्त्व को समझ कर पंजाब से मुंबई तक विद्या मंदिर खुलवाए। राष्ट्र निर्माण में यह अद्भुत योगदान था। मुझे अपार हर्ष है की श्री आत्म वल्लभ जैन स्नातकोत्तर कन्या महाविद्यालय, श्री गंगानगर गुरुदेवों के सपनों के अनुरूप शिक्षा व संस्कारों का प्रख्यात केंद्र है। आज यह संस्थान राष्ट्रीय स्तर पर उत्तरोत्तर प्रगति कर रहा है। अधिकार और कर्तव्यों का कुशल प्रबंधन सीख कर छात्राए विविध पाठयक्रमों में श्रेष्ठतम स्थान प्राप्त कर रही है। यह सब माता – पिता व गुरुओं के लिए गौरव का विषय है।
संस्था की आशातीत प्रगति में संस्थापक सदस्यों का तन-मन-धन से अपूर्व योगदान है। आशा है सुशिक्षित सुसंस्कारी संतानों के तराशने की गुणवत्ता संस्था को उत्तरोत्तर प्रगति के शिखर तक ले जाएगी। शिवमस्तु सर्वजगत: की शुभभावना से सबका कल्याण होगा। सबकी प्रगति के लिए मंगल कामनाएँ |